रेप की शिकायत के बाद दफ्तर में औरत की हैसियत वही रहती है, जैसे सब्जी में बिना गला टमाटर
पहले उन्होंने मेरे पति को मारा। फिर दोनों लड़कों को। इसके बाद वे मुझे और 10 साल की मेरी बच्ची को घसीटकर ले जाने लगे। हंसते हुए कह रहे थे- हम औरतों-बच्चियों का खून नहीं करते, हम सिर्फ उनका रेप करते हैं। जब हम सड़क पर पहुंचे तो देखा कि वहां जगह-जगह हथकड़ियों की तरह दिखने वाली बेड़ियां लगी हुई थीं। हमारे कपड़े फाड़ दिए गए और हाथ-पैर बांध दिए गए। अब हम सड़क का हिस्सा थीं- हर पांव के नीचे रौंदे जाने को तैयार।
‘कितने सैनिकों, कितने मर्दों ने मेरा रेप किया, मुझे याद नहीं। जब-जब मैं बेहोश होती, मुझ पर पानी की बाल्टी फेंक दी जाती। होश में आते ही रेप का सिलसिला चल पड़ता। एक रोज पता लगा कि मेरी बेटी मर चुकी है। मैं भी मरना चाहती हूं।’
रेप में आंतें और आंखें दोनों ही खो चुकी मुकुनिन्वा (Mukuninwa) ने जब इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट में ये कहा तो कमरे में सन्नाटा नहीं छाया, किसी के फफककर रो पड़ने की आवाज नहीं गूंजी, बल्कि छाती पर मुक्के की तरह एक सवाल आया- आपने इतने सालों तक आवाज क्यों नहीं उठाई? कई जज इस पर भी हैरत जताने लगे कि इतनी बर्बरता के बावजूद औरतें जिंदा कैसे रह गईं! ये बात ग्रेट अफ्रीकन वॉर के बाद की है। बता दें कि इससे कुछ साल पहले साल 1998 में आईसीसी ने रेप को ‘भी’ युद्ध से उपजी तकलीफ का दर्जा दिया था, लेकिन दर्जा देना अलग बात है, संवेदनशील होना दूसरी।
खूब पढ़े-लिखे और इंसाफ-पसंद जजों में से एक ने दलील दी- जब चोट लगती है तो चीख तुरंत निकलती है। वो किसी खास समय का इंतजार नहीं करती। ‘अगर’ रेप भी एक किस्म की चोट है, तो जख्म पाने-वालियां तुरंत क्यों नहीं चीखतीं? अगर आपके साथ किसी मर्द ने ज्यादती की तो आप सालोंसाल चुप क्यों रह जाती हैं?
सवाल वजनदार था। कम पढ़ी-लिखी और बात-बेबात बुक्का फाड़कर रो पड़ती औरतों के पास इसका जवाब नहीं था। लगभग 20 साल पहले उठा ये सवाल शायद दो हजार साल पहले भी उठा हो, और दो सौ साल बाद भी बना रहेगा। कम से कम फिलहाल हमारे यहां तो यही चल रहा है।