ज्ञानवापी में बजेगा शंख या गूंजेगी अजान

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ज्ञानवापी मंदिर है या मस्जिद, ये विवाद कोर्ट में है। वाराणसी की कोर्ट के आदेश पर वहां सर्वे जारी है, लेकिन मुस्लिम पक्षकार चाहते हैं यह सर्वे बंद हो और यथास्थिति बनी रहे, यानी जैसा चल रहा था, वैसा ही चलता रहे।

मुस्लिम पक्षकार अंजुमन इंतजामिया कमेटी के प्रभारी सचिव एसएम यासीन कहते हैं, ‘यह हम नहीं भारत का प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट कहता है- 15 अगस्त 1947 के समय जो धार्मिक स्थल जिस स्थिति में थे वे वैसे ही बने रहेंगे, कोई मुकदमा करेगा भी तो वह अदालत में खारिज हो जाएगा। सुप्रीम कोर्ट में इसी आधार पर सर्वे रोकने की अर्जी मुस्लिम पक्षकार ने दी है।’

हिंदू पक्षकार, यानी हिंदू सेना ने इस अर्जी में दखल देते हुए इंटरवेंशन PIL लगाई है। इसके अध्यक्ष विष्णु गुप्ता कहते हैं, ‘यह एक्ट हमारे लिए कोर्ट के दरवाजे बंद करता है, अगर कोर्ट नहीं जाएंगे तो अतीत में हुए हमारे साथ अन्याय के खिलाफ हम गुहार कहां लगाएंगे।’

तो क्या यह एक्ट हमें लाठी डंडे उठाने के लिए उकसा रहा है? ज्ञानवापी के बाद क्या? गुप्ता कहते हैं, ‘कुतुबमीनार, मथुरा, अलीगढ़…वह सारे धार्मिक स्थल जिन्हें तोड़ा गया और कन्वर्ट किया गया।’

‘भगवान’ के मूल अधिकार का भी हनन इस एक्ट से!
हिंदू सेना के प्रतिनिधि के तौर पर वर्शिप एक्ट को रद्द करने के लिए ‌BJP के पूर्व प्रवक्ता एडवोकेट अश्वनी उपाध्याय ने दिसंबर 2020 में एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की थी।

यह याचिका कहती है, ‘वर्शिप एक्ट-1991 न केवल हिंदुओं, बल्कि उनके भगवान के भी मौलिक अधिकारों का हनन है। यह एक्ट तो हमारे कृष्ण और राम, शिव और राम के बीच भी भेदभाव करता है।’

पहला- संविधान में भगवान को भी अधिकार मिले हैं, उन्हें ज्यूडिशियल पर्सन माना गया है। जैसे अयोध्या का केस राम लला विराजमान के नाम से लड़ा गया। वैसे ही मथुरा में कृष्ण विराजमान और काशी में शिव विराजमान हैं। जब राम को उनका अधिकार मिला तो शिव को क्यों नहीं मिलेगा? क्या जिसे संविधान में ज्यूडिशियल पर्सन कहा गया है उन दोनों के बीच भेदभाव संविधान का उल्लंघन नहीं?

दूसरा- हमारे संविधान में और बहुत सारे प्रावधान हैं, जिनके मुताबिक भगवान को भी प्रॉपर्टी का अधिकार है। उदाहरण के लिए, जैसे अयोध्या में राम लला विराजमान हैं, वैसे ही जहां कहीं भी जो देवी- देवता हैं, जिनकी जो जगह है, उनको उसका अधिकार है। ऐसे में सर्वे रोकने का कोई कारण ही नहीं बनता है। शिव वहां मिले तो फिर वह उनकी प्रॉपर्टी मानी जाएगी।

हिंदू-मुस्लिम, दोनों को साबित करना होगा, वो जगह किसकी
एडवोकेट उपाध्याय कहते हैं, ‘वर्शिप एक्ट-1991 में सबसे पहले तो यह साबित करना होगा कि वह पूजा स्थल किसका है?

जब पूजा स्थल साबित करने की बात आएगी तो चूंकि हम एक सेक्युलर कंट्री हैं तो फिर हिंदू, मुस्लिम, जैन, बौद्ध, सिख सबके नियम कॉमन नहीं होंगे, उनकी अलग-अलग मान्यताओं पर आधारित होंगे। जैसे हिंदू लॉ कहता है- अगर एक बार किसी जगह पर भगवान की प्राण प्रतिष्ठा हो गई तो फिर वह तब तक मंदिर है जब तक उनका विसर्जन न हो जाए। गणेश, दुर्गा सबका विसर्जन इसी मान्यता पर आधारित है।

इस्लामिक लॉ के मुताबिक मस्जिद होने के 3 आधार होते हैं- पहला- मस्जिद उस जगह बन सकती है जो बिल्कुल वर्जिन हो, खेत की तरह। दूसरा- एक ईंट का भी ढांचा वहां ना हो, या वह जमीन किसी से खरीदी गई हो, या तीसरा- वह जमीन किसी ने दान में दी हो।’

एडवोकेट उपाध्याय कहते हैं, ‘अब मुस्लिम पक्ष को यह साबित करना है कि इन तीन में से कौन सा आधार ज्ञानवापी में मस्जिद होने का आधार है। यह भी साबित करना पड़ेगा कि हमने अपने शिव का विसर्जन कब किया, जो उसके बाद उनकी मस्जिद बनी।’

इंतजामिया कमेटी के एसएम यासीन कहते हैं, ‘हमने अपनी अर्जी देश की सबसे बड़ी अदालत में डाल दी है। फैसला उन्हें करना है। यह देश कानून के हिसाब से चलेगा या कुछ लोगों के एजेंडे के आधार पर यह कोर्ट तय करेगा। आधार न्यायालय में तय होगा, उसके बाहर नहीं।’

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